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विख्यात  नाटककार और लेखक महेश एलकुंचवार का यह निबंध संग्रह भाषा के विराट में अनवरत भटकने और नए-नए अनुभवों को साक्षात करने की जोखिम भरी प्रक्रिया का परिगान है। इन निबंधों को वैचारिक उद्वेलन और संस्मरणों के बीच फैली एक ऐसी भूमि पर अवस्थित किया गया है जिसमें स्मृति का कल्पना के सहारे अवतरण होता है और विचारों का सिलसिला पाठकों की आँखों के सामने बलता चला जाता है। इस संग्रह के निबंधों में किसी एक स्मृति के छोर को थाम कर उसके सहारे अपने चारों ओर बिखरी अन्यान्य स्मृतियों को इतनी खूबसूरती से पिरोया गया है कि तुम्हें पता भी नहीं चलता कि तुम किस एक समय से किसी बिल्कुल दूसरे समय में पहुँच गए हो। इन स्मृतियों में वे स्मृतियों भी शामिल हैं जो आकांक्षाओं में उद्‌द्घाटित होती रहीं पर जिन्हें वास्तविकता की तपती ज़मीन पर उतरने का मौका ही नहीं मिला। कभी स्मृति तुम्हारा हाथ पकड़कर तुम्हें निबंधकार की आकांक्षा के अवकाश में छोड़ आती हैं जहाँ तुम आख्याता को प्रसिद्ध फ़िल्मों की गायिका नूरजहाँ के सामने खड़ा पाते हो, या जहाँ महान अंग्रेज़ी कवि एमिली डिकन्सन तुमसे इस तरह बात कर रही होती है मानो तुम उनके साथ किसी कॉफी हाउस की मेज़ के आर-पार बैठे हो। कभी इन्हीं स्मृतियों में तुम बच्चा-आख्याता की देख-रेख करने वाले पिवा के खोने का शोक मनाते हो। कभी उसकी माँ के वात्सल्य के संकोच से दुचार होते हो।


इन निबंधों में ‘लेखन’ के स्वरूप पर भी विचार हैं और देश के विभाजन की पीड़ा पर मी। इनमें लेखक के पश्चाताप भी हैं और दुःख भी। उसके दुःस्वप्न भी हैं, उसके जीवन की विडंबनाएँ भी। लेकिन इन्हें पढ़ते हुए कब ये पश्चाताप दुःख दुःस्वप्र विडंबनाएँ पाठक के अपने पश्चाताप, दुःख, दुःस्वप्र, विडंबनाओं में अंतरित हो जाते हैं, उसे पता भी नहीं चलता। शायद इसका कारण यह है कि इन चारों निबंधों में एक बारीक-सा आख्यान अन्तःसलिल है जो तमाम भटका, उड़ानों, क्षेपकों आदि के बाद भी तानपुरे की धुन की तरह लगातार तुम्हें सुनाई देता रहता है। मानो तुमसे कह रहा हो कि तुम इस निबंध के अवकाश में कहीं भी भटक आओ, तुम्हें मेरा होना कभी भी विस्मृत नहीं हो पाएगा।

उदयन वाजपेयी 

Chaturbandh | चतुर्बंध

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